
लखनऊ। (ज़रगाम रिज़वी) रमजान का महीना और कोरोना वायरस के संकट की वजह से लाकडाउन । रोजेदारों के मन में बार – बार कुदरत के इस कहर की याद कौंध रही है। ऐसा कोई लम्हा नहीं होता जब पुराने दिनों की याद न आये। शाम ढलते-ढलते तो दिलों में उठने वाली ये हूक और भी बढ़ जाती है ।
आखिर भूलें भी तो कैसे ?

लखनऊ की गलियों की रौनक और वो भी रमजान के महीने में , भला कौन भूल सकता है। रमजान का पाक महीना खुदा की इबादत का महीना तो है ही , जायकों के तौर पर उसकी नेमत भी इस महीने में लखनऊ में खूब बरसती थी, लेकिन इस बार हालात जुदा है ।

जिन सड़कों और गलियों में शाम ढलते ही खुश्बू का सैलाब उमड़ पड़ता था। आज वहां सन्नाटे का बसेरा है। शाम ही क्यों भोर की याद भी नहीं जाती, जब सहरी का वक्त होता है। दरअसल कोरोना वायरस महामारी ने लखनऊ के जायकों को भी अपनी बेड़ियों में जकड़ लिया है।
शुरु करते हैं सहरी से
रोजेदारों के लिए सहरी बेहद अहम होती है । वैसे तो ज्यादातर लोग घरों में ही शरबत और दूध-फेनी खाकर तसल्ली पा लेते थे, लेकिन जायकों के शौकीनों के लिए बड़ा ठिकाना होता था। जैसे अकबरी गेट, अमीनाबाद का नजीराबाद यहां पूरा इलाका गरम मसाले की खुश्बू से सराबोर रहता था। यहां आने के बाद दिन- रात का फर्क लोग भूल जाते थे। रहीम के कुल्चे और नहारी के लिए पतली सी गली में भीड़ जमा रहती थी । सबसे ज्यादा नहारी – कुल्चे की ही सहरी में मांग रहती थी। रहीम होटल के मालिक बिलाल अहमद ने दावा किया कि उनके दादा हाजी अब्दुल रहीम ने ही कुल्चे को इजाद किया था। १०० साल से ज्यादा पुरानी ये दुकान रमजान में इफ्तारी से लेकर सहरी तक चलती थी और दिन में बन्द रहती थी। लखनऊ में वैसे तो हलीम खाने का चलन नहीं है लेकिन , रमजान के महीने में ख्यालीगंज में इसकी भी व्यवस्था हो जाया करती थी। पहले कुल्चे नहारी का स्वाद लिया और फिर थोड़ी हलीम , दिनभर का मामला पक्का। शाम के वक्त का नजारा तो अलबेला ही होता था। चौक अमीनाबाद, अकबरी गेट, नजीराबाद विक्टोरिया स्ट्रीट , नक्खास, हुसैनाबाद और मौलवीगंज में खाने पीने के शौकीनों की फौज इफ्तारी के बाद से दिखनी शुरु हो जाती थी। चौक कोतवाली के पीछे गोल दरवाजे में बिकने वाले पानी के बताशों के दिन जाते रहे । हर बताशों में अलग- अलग मसाले का पानी। शहर घुमते घुमते यदि चौक से निकलकर हजरतगंज की ओर चले आये तो नावेल्टी सिनेमा के पास जैन चाट भण्डार में मटर चाट , टिक्की और दही बड़े का आनन्द उठा लिया । यहां निपटाने के बाद बारी आती थी मेनकोर्स की। कबाब, बिरयानी, पाये, नहारी, बोटी कबाब, बन्द गोश्त, कोरमा, मसाला चाप का दौर शुरू होता था।